कितनी आसानी से कह दिया की छोड़ दो। हमने कहा क्या और क्यो? बस ऐसे ही भला कुछ छूटता हैं क्या? कह तो दिया की छोड़ देंगे मग़र क्या छूट पाएंगे वो पल जो हमने उसमें गुजारे हैं? साथ हम सबकुछ लेकर भला क्या जा पाएंगे । उन रातों का क्या? जो हमने साथ बैठकर नींदों को मात दी थी। उस कमरे का क्या? जहाँ तुमने हमको सहलाया था। उस आँगन का क्या? जो धूप में भी सुकून दे जाया करता हैं। वैसे तो पौधे और भी और कही भी लगा शकती हु, पर आँगन की वो महक कहा से ला पाऊँगी। उन अल्फाज़ो का क्या? जो कोनेकोने में गूंज रहे हैं। वो ख़ामोशी कैसे ले जा पाऊँगी, जो आपने ही सुनी थी मेरे बिन कहे, बताया था दुनिया के दोहरे रंग को,आपने ही आधी रात को। कुछ खट्टी, कुछ मिठ्ठी, कुछ न भूलने वाले लम्हें आज भी जिन्दा हैं इस दीवारों में, कैसे समेटेंगे उन आँसुओ को गिरने से, जब भी तन्हाई महसूस हुई जब भी लगा की हार गई, वो आप ने ही आंचल से बहलाया था रातभर। कहते थे जहाँ रहेंगे साथ ही रहेंगे और रहे भी। पर अब क्या? वो टिकटिक करने वाली घड़ी तो फिर भी साथ ले जाऊँगी पर वो गुजरा हुआ वक़्त कहा से लाऊँगी। चली जाती फिर भी में लेकर आप...
That's just the way I am.