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Showing posts from 2020

Fear No More - William Shakespeare

  Fear No More -          William Shakespeare Fear no more the heat o’ the sun, Nor the furious winter’s rages; Thou thy worldly task hast done, Home art gone, and ta’en thy wages: Golden lads and girls all must, As chimney-sweepers, come to dust. Fear no more the frown o’ the great; Thou art past the tyrant’s stroke; Care no more to clothe and eat; To thee the reed is as the oak: The sceptre, learning, physic, must All follow this, and come to dust. Fear no more the lightning flash, Nor the all-dreaded thunder stone; Fear not slander, censure rash; Thou hast finished joy and moan: All lovers young, all lovers must Consign to thee, and come to dust. No exorciser harm thee! Nor no witchcraft charm thee! Ghost unlaid forbear thee! Nothing ill come near thee! Quiet consummation have; And renownèd be thy grave! Fear No More the Heat o’ the Sun’ is one of the most famous songs from a Shakespeare play, although its context – in the late play  Cymbeline  –

ઘર

વર્ષો પહેલાં નજર સામે બંધાવેલી દિવાલની એક ઈટ પણ હલે તો  ધ્રાસકો તો પડે જ!  ને અહીંયા તો આખુ ઘર હલ્યું'તું.  એક સમી સાંજે ચકલી પાછી ફરી તો ખરી પણ  ઘર ફરતે ચાર થી પાંચ આંટા માર્યા એ વિચારમાં કે, કદાચ ક્યાંય ભૂલી તો નથી પડી ને?  એવું બને નહિ છેલ્લા કેટલાય સમયથી ઘર છે અહીંયા એનું. ને ઘરને ભૂલવાનો તો સવાલ જ ના હોય ને!  ઘર એ ઘર હોય છે. એ પછી મારું હોય, તમારું હોય કે પંખીનું.  પણ એના હદયનો ફફડાટ એની પાંખમાં ઉભરાયો.  ત્યાં આવી કોયલ બન્ને એકબીજાને તાકી રહ્યા.  ઉપરની ડાળમાં એમના બચ્ચા ને માળો સલામત છે એની ખાતરી હજી તેઓએ નથી કરી.  એની નજર આંગણમાં ઢેર થયેલા ઝાડ પર છે. નીચે પડેલી વનરાઈની લીલાશ એની આંખમાં લાલ થઈને ઉભરાઈ, ને  ફળિયામાં પડેલા હજી લીલીછમ ડાળ ને રોજની જેમ જ સિંહાસન બનાવીને વીંધાય ગયેલા સામ્રાજ્ય પર  આધિપત્ય સ્થાપ્યું. વેદનાને ટહુકામાં ભારે હૈયે ધરબી એકાએક એ પૂછી બેઠી આંગણાંને કે, 'કા ભાઈ ના સેહવાયો ભાર મારો?' વર્ષોથી બાંધી રાખેલું ઘર આ પળમાં કાં વિખાણું? દીધેલા દાણાંને પાણી નો આવો હિસાબ તું ક્યાં કરી આવ્યો?  ઝાડમાં માળો ને માળામાં ઝાડ આખુ એ પંખી કહે આ બચ્ચા જ નહી  આ એક એક પાન

मौत जिन्दा हैं

वो आई जरूर, कैसे और कहा से नही पता।  मौत हर किसी के जहन में जिन्दा हैं उसका अपना ही गुस्सा बनकर। वो गुस्सा कभी सोचने नही देता, ना अपने बारे में ना ही दुसरो के।  वो गुस्सा तुम्हें तुम से पहले अलग कर लेता हैं फ़िर तुम वो बोलने लगते हो जो तुम कभी बोलना ही नही चाहते थे तुम वो कर जाते हो जिसको करने से तुमने ही किसी और को कईबार ये गलत हैं कह कर रोका था तुम वो हर चीज़ कर जाते हो जो दरअसल तुम कभी करना ही नही चाहते आज ही देखो क्या हो गया ??? क्या कर गये ?? बड़ी अजीब बात हैं, कब कैसे और क्यो, वो तुम्हें भी नही पता। अब वो रोती बिलखती औरत का क्या? वो छोटे छोटे मासूम बच्चों का क्या? ना सुबह हुए, ना दोपहर आई ना ही शाम ढली अब तो सिर्फ़ जिंदगी में अंधेरी रात हैं और काले घने बादल। तुम गुस्सा थे तो थूक देते, पर ए क्या, एक निहत्थे पे वार!! वो तुम्हारे सामने चैन की नींद सो गया हैं  और अब तुम जागना सारी जिंदगी उस नींद का बोझ लिए क्योंकि मौत सिर्फ़ किसी एक को नही मारती। सोच ना जरूर, की क्या तुम ने उसे जलाया हैं  या  फ़िर अपने गुस्से को। कहती हु ना की मौत हर एक के जहन में जिन्दा होती हैं। ~ भूमि जोशी   

कोरोना से नही हारना

 में नही चाहती की तुम हारो,   तुम नही में दिल से चाहती हु की कोई भी इस जंग में ना हारे लेकिन मुझे पता हैं की कौन बचेंगे इस लड़ाई में कभी लगता हैं की ये लड़ाई हैं स्वयं की स्वयं से विरुद्ध ये लड़ाई हैं अपनी ही आदतों से ये लड़ाई हैं हमारी ही सोच से  ये लड़ाई हैं हमारे भीतर पल रहे वाइरस की  ये लड़ाई हैं देश को बचाने की  सब को लगता है की हम को कुछ नही होगा कोरोना हमारा क्या उखाड़ लेगा लेकिन कभी सोचा है.... ए वाइरस नही तुम्हें तुम्हारी आदतें ही वहाँ तक ले जाएगी, वो वाइरस इतना स्वाभिमानी हैं की बिना बुलाये मेहमान नवाजी आपके वहाँ कभी नही करता। घर पे रहना, हाय, कैसे रहंगे ? ये सोच में डूबे हो?  लगता हैं की भूल गए हो की घर क्या होता हैं बूढ़े मा - बाप के चहेरे की हसी क्या होती हैं बच्चों की किलकारी क्या होती हैं उन दीवालों को कभी ग़ौर से देखा हैं जिन पे तुम्हारी ही तसवीर टंगी रहती हैं?  पहचानते हो उस शख्श को ?  की भूल गए हो?  पिछले सोमवार को जो लाये थे किताबें आज भी वो मेज़ पर पड़ी इंतजार कर रही हैं सिर्फ़ तुम्हारा  अपने अंदर जाक कर तो देखो कहि बचपना उभर रहा हैं तुम्हारा  वो जो हर